"आचार्यवेत्ता महात्माओं ने यह नियम कर दिया है कि अतिथि आने पर यदि और कुछ न बन पड़े तो प्रेम-पूर्ण अक्षरों की रस-धारा ही को मधुपर्क बनाना चाहिए। अभ्यागत की तृप्ति के लिए अपनी आत्मा को भी तृणवत् समझना चाहिए। और यदि, उस समय पाद्य और अर्घ्य के लिए जल न मिल सके तो आनन्दाश्रुओं ही से उस विधि का सम्पादन करना चाहिए। आपका दर्शन होते ही मैं अपना जो आसन छोड़ कर खड़ी हो गई वह यथार्थ में आपके बैठने योग्य नहीं, तथापि मेरी प्रार्थना पर बहुत नहीं तो क्षण ही भर के लिए, कृपा-पूर्वक, आप उसे अलंकृत करें। यदि आपकी इच्छा और कहीं जाने की हो तो भी, मेरे अनुरोध से, आप मेरी इस विनती को मान लेने की उदारता दिखावे। आपके ये पद-द्वय शिरीषकलिकाओं की मृदुता का भी अभिमान चूर्ण करने वाले हैं। यह तो आप बताइए कि आपका निर्दय हृदय कब तक इन्हें, इस तरह खड़े रख कर, क्लेशित करना चाहता है। बसन्त बीत जाने पर जो दशा उपवनों की होती है वही दशा आपने किस देश की कर डाली? आपके मुख से उच्चारण किए जाने के कारण कृतार्थ होने वाले आपके नाम के अक्षर सुनने के लिए मैं उत्सुक हो रही हूँ। अपने दर्शनों से सारे संसार को तृप्त करने वाले आप जैसे पियूषमुख (चंद्रमा) को उत्पन्न करके किस वंश ने समुद्र के साथ स्पर्द्धा करने का बीड़ा उठाया है? उस वंश का यह उद्योग सर्वथा स्तुत्य और उचित है। इस दुष्प्रवेश्य अन्तःपुर में आपके प्रवेश को मैं महासागर को पार कर जाना समझती हूँ। मेरी समझ में नहीं आता कि इतने बड़े साहस का कारण क्या है और इसका फल भी क्या हो सकता है? आपके इस सुरक्षित अन्तःपुर-प्रवेश को मैं अपने नेत्रों के कृतपुण्य का फल समझती हूँ। आपकी आकृति सर्वथा भुवन-मोहिनी है। द्वारपालों को अन्धा कर डालने की शक्ति भी आप में बड़ी ही अद्भुत है। आपकी शरीर-कान्ति भी