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पंडित महावीरप्रसादजी द्विवेदी
 

की सफलता न हुई तो लिखना ही व्यर्थ हुआ।" एक अन्य स्थल पर कहा है कि "बेमुहाविरा भाषा अच्छी नहीं लगती। 'क्रोध क्षमा कीजिये' इत्यादि वाक्य कान को अतिशय पीड़ा पहुँचाते हैं।" इन बातों से द्विवेदीजी की भाषा तथा शैली का अनुमान किया जा सकता है। उन्होंने घोर तत्समता का प्रयोग नहीं किया। 'शुद्धतर' और 'शुद्धतम' की अपेक्षा वे 'अधिक' का प्रयोग अच्छा समझते हैं। उर्दू तथा फारसी के प्रचलित शब्द द्विवेदीजी द्वारा बराबर प्रयुक्त हुए हैं। सब कुछ होते हुए भी यह ध्यान रखना चाहिये कि अपने ही सिद्धान्तों का अक्षरशः पालन करना कठिन हो जाता है और द्विवेदीजी भी इस नियम के अपवाद नहीं हैं। यही कारण है कि बीच-बीच में आपका संस्कृत का पाण्डित्य अपना चमत्कार दिखा ही जाता है और 'सौरस्य' 'कौटिल्य' 'पुरुषायित सम्बन्ध' आदि शब्द स्थान-स्थान पर आते हैं। उग्र समालोचक के नाते समझिये अथवा और किसी भी कारण से हो—द्विवेदीजी की शैली में प्रवाह की कमी है। एक ही भाव को बार-बार दुहराने की प्रवृत्ति भी आपकी शैली की विशेषता है, 'रसज्ञ-रञ्जन' में भी इन प्रवृत्तियों को देखा जा सकता है।

'रसज्ञ-रञ्जन' आपके साहित्यक निबन्धों का सर्वोत्तम संग्रह है। इसमें वर्णित 'ऊर्म्मिला-विषयक कवियों की उदासीनता' पढ़ कर ही शायद कविवर मैथलीशरणजी को 'साकेत' की सृष्टि करनी पड़ी थी। 'हंस का नीर-क्षीर-विवेक' शीर्षक लेख भी अपने ढँग का एक ही है। 'नल का दुस्तर दूत कार्य' और 'हंस-सन्देश' में एक ओर जहाँ आलङ्कारिक वर्णन की विशेषता है, वहाँ दूसरी ओर भावों की ऊहापोह और उच्चकोटि के शृङ्गार रस का समुचित स्वाद मिलता है। कवि और कविता के विषय में आपने जो कुछ लिखा है, वह यद्यपि बीस वर्ष पुराना लिखा हुआ है; परन्तु आज भी उसकी अधिकांश बाते सत्य और नये कवियों के लिए माननीय हैं।