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७-हंस का नीर-क्षीर विवेक
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ही शिथिल कर देगा तो, फिर इस जगत मे अपने कुलव्रत का पालन और कौन करेगा?

वितीर्णशिक्षा इव हृत्पतस्थ सरस्वतीवाहनराज हंसैः।
ये क्षीर-नीर-प्रविभागदक्षा यशश्विनस्ते कवियो-जयति॥

—श्रीकण्ठचरित।

हृदय में स्थित सरस्वती के वाहन राजहंसों ने मानों जिनको शिक्षा दी है, ऐसे क्षीर-नीर-विभाग करने में दक्ष कविजनो की महिमा खूब जागरूक है।

यो हनिष्यति वध्यं त्वां रक्ष्यं रक्षति च द्विजम्।
हंसों हि क्षीरमादत्ते तन्मश्रा वर्जयत्यतः॥

—शकुन्तला।

हंस जिस तरह क्षीर ग्रहण कर लेता है और उसमें मिला हुआ पानी पड़ा रहने देता है, वैसे ही यह भी बध करने योग्य मुझे मारेगा और रक्षणीय द्विज की रक्षा करेगा।

प्रज्ञास्तु जल्पता पुंसां श्रुत्वा वाच शुभाऽशुभाः।
गुणाबद्वाक्यमादत्ते हंस क्षीरमिवाम्भस॥

—महाभारत—आदिपर्व

लोगों के मुँह से भली-बुरी बातें सुन कर बुद्धिमान् आदमी अच्छी बात को वैसे ही ग्रहण कर लता है, जैसे हंस जल में से दूध को ग्रहण कर लेता है।

यजुर्वेद के ततिरेय ब्राह्मण के दूसरे अध्याय में एक वाक्य है। उसका मतलब है—जिस तरह क्रौञ्च-पक्षी जल और दूध को अलग-अलग करके दूध का ही पान करता है, उसी तरह इन्द्र भी जल से सोमरस को अलग कर के उसका पान कर लेता है। इसकी टीका सायनाचार्य ने इस प्रकार की है—

क्षीरपात्रे स्वमुखे प्रक्षिपते सति मुखगतरससम्पर्कात्क्षीरांशो जलांशश्चौभौ विविच्यते।