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रसज्ञ-रञ्जन
 

को लेकर आपने 'सरस्वती' में जो तीव्र आलोचना की उससे लेखकों के होश ठिकाने आने लगे, इस तीव्र कषाघात से लोगों की आँखें खुलीं और उन्हें ज्ञात हुआ कि हिन्दी भी एक ऐसी भाषा है, जिसमें व्याकरण के नियम हैं. वाक्य-विन्यास की शैली है और शब्दों का साधु प्रयोग। क्रमशः हिन्दी-गद्य एक निश्चित तथा शुद्ध शैली पर आ गया। पं॰ रामचन्द्रजी शुक्ल का मत था कि द्विवेदीजी का यह कार्य, जब तक भाषा के लिए व्याकरण विशुद्धता आवश्यक समझी जाती है, सदा साहित्य के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अङ्कित रहेगा।

गद्य के स्वरूप-निर्धारण के अतिरिक्त द्विवेदीजी ने उसके विविध अङ्गों की पूर्ति का भी उद्योग किया। सामयिक विषयों पर लिखे हुए निबन्धों के अतिरिक्त आपने "बेकन-विचार-रत्नावली" नामक निबन्धों का संग्रह तथा 'स्वाधीनता', 'शिक्षा', 'सम्पत्ति-शास्त्र' आदि कई अन्य ग्रन्थ बेकन, मिल, स्पेंसर आदि विद्वानों के ग्रन्थों के अनुवाद-स्वरूप प्रस्तुत किये। समालोचना के क्षेत्र में भी आपने कई पुस्तक तथा लेख प्रकाशित किये। उनके कविता-सम्बन्धी कई निबन्ध "रसज्ञ-रञ्जन" में विद्यमान है। इनके अतिरिक्त 'हिन्दी कालिदास की समालोचना', 'कालिदास की निरंकुशता', 'नैषधचरित चर्चा' आदि कई अन्य ग्रन्थ इसी विषय पर और हैं।

इस प्रकार हिन्दी पर द्विवेदीजी का प्रभाव सर्वतोमुखी तथा चिरकाल तक रहने वाला है।

द्विवेदीजी की शैली—लेखक को कैसी भाषा प्रयुक्त करनी चाहिए, इसके ऊपर द्विवेदीजी ने 'हिन्दी कालिदास की आलोचना' तथा 'रसज्ञ-रञ्जन' में अपने विचार प्रकट किये हैं। 'रसज्ञ-रञ्जन' में उन्होंने कहा है कि "ऐसी भाषा लिखनी चाहिए, जिसे सब सहज मे समझ लें………यदि इस उद्देश्य ही