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रसज्ञ रञ्जन
 

अन्दाज हुआ। कहाँ दमयन्ती का भुवन-मोहन रूप और कहाँ शास्त्रीजी का शुष्क वर्णन। दोनों में आकाश-पाताल का अन्तर! आखिर बूढ़े ही तो ठहरे!

मैंने देखा, दमयन्ती की पशा अच्छी नहीं। वह उदास हैं। इसलिए उसकी चिन्ता का कारण जानने की इच्छा से मैं वहीं ठहर गया। उस हौज के पास दमयन्ती के कई क्रीड़ा-हंस भी थे। इन्हीं के साथ मैं भी इधर-उधर घूमने और दमयन्ती की चर्य्या अवलोकन करने लगा। मैं बीच-बीच में मनुष्य की बोली बोलने लगा। उसे सुन कर दमयन्ती को बड़ा कौतूहल हुआ। वह मेरी तरफ बार-बार देखने लगी। मैं यही चाहता था। इतने में विघ्न हुआ। दमयन्ती को खेंदवती देख, एक सखी उससे खेद का कारण पूछने लगी। वह बोली—

"सखी लवलीलता के समान तेरी गण्डस्थली पीली पड़ गई है। लाल कमल के समान अपने कोमल कर-पल्लव के बोझ से उसे तू क्यों तङ्ग कर रही है? देख, यह निष्करुण पिक अधखिली कलियों वाली आम की इस पतली शाखा को पीड़ित कर रहा है। क्यों नहीं तू उसे अपनी करमालिका से उड़ा देती? सुगन्ध के लोलुप ये भ्रमर खिले हुए फूलों को छोड़ कर तेरी तरफ आते हैं, पर व्याकुल हो कर वे पीछे हट जाते हैं। इससे जान पड़ता है कि सन्ताप से तेरा श्वास तप रहा है। तेरे कान में खोंसे हुए तमाल-दल को खींचने में जिसे तत्पर देख कौतूहल होता था, वह हरिण-शावक तुझे खिन्न-हृदय जान कर मुँह में रक्खे गये दर्भाङ्करों को भी नहीं खाता। करतल में रख कर जिसे तू अनेक प्रकार की सरस वाते सिखलाती थी, वह तेरा क्रीड़ा-शुक, तुझे चुप देख, ऐसा मूक हो रहा है जैसे अभी नया जङ्गल से पकड़ आया हो। अपने इस केलि-हंस को तो तू जरा देख।