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रसज्ञ रञ्जन
 

यह पढ़ते अथवा सुनते समय सुनने वाले के हृदय मे सीता की धर्मनिष्ठा और पतिपरायणता-विषयक भाव थोडा-बहुत उद्दीप्त या जाग्रत हुए बिना कभी नही रह सकता।

एक और उदाहरण लीजिए। पण्डित श्रीधर. पाठक द्वारा अनुवादित “एकान्तवासी योगी मे वियोगिनी पथिक-वेश-धारिणी अञ्जलेना अपने प्रियतम एडविन से उसी के विपय में इस प्रकार कहती है-

पहुँचा उसे खेद इससे अति, हुआ दुखित अत्यन्त उदास
 

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तज दी अपने मन मे उसने, मेरे मिलने की सब आस।
 
मै यह दशा देखने पर भी, ऐसी हुई कठोर ।
 
करने लगी अधिक रूखापन, दिन दिन उसकी ओर ।।
 
होकर निपट निराश अन्त को, चला गया वह बेचारा;
 
अपने उस अनुचित घमंड का फल मैने पाया सारा ।
 
एकाकी में जाकर उसने, तोड़ जगत से नेह;
 
धोकर हाथ प्रीति मेरी से, त्याग दिया निज देह ।।
 
किन्तु प्रेमनिधि, प्राणनाथ को भूल नही मै जाऊगी;
 
प्राण दान के द्वारा उसका ऋण 'मै आप चुकाऊंगी ।
 
उस एकान्त ठौर को मै, अब 'ढळूहूँ दिन रैन ।
 
दुख की आग बुझाय जहाँ पर दू इस जन को चैन ।
 
जाकर वहाँ जगत को मैं भी, उसी भॉति विसराऊंगी,
 
देह गेह को देय तिलाञ्जलि, प्रिय से प्रीति निभाऊंगी।
 
मेरे लिए एडविन ने ज्यो, किया प्रीति का नेम;
 
त्योही मै भी शीघ्र करूगी, परिचित अपना प्रेम ॥
 

इसमे अञ्जलेना के पवित्र प्रेम और उसकी भूल के पश्चा.त्ताप-सम्बन्धी रस को कवि ने अपने हृदय मे लेकर शब्दो के द्वारा वाहर बहाया है। वह रस-प्रभाव सुनने वालो के अन्तःकरण में प्रवेश करके उपरति उत्पन्न करता है जिसके कारण हृदय