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रसज्ञ-रञ्जन
 

क्लर्क हो गये। यहाँ बंगालियों के सहवास ने इन्हे बंगला भाषा के अभ्यास में सहायता पहुँचायी। इसी समय आपने संस्कृत के काव्य-ग्रंथों तथा अलङ्कार-ग्रंथों का विशेष रूप से मनन किया। धीरे-धीरे आपका विचार साहित्य-सेवा की ओर आकृष्ट हुआ। इसी समय एक घटना ऐसी हो गयी, जिससे यह विचार कार्यरूप में परिणत हो गया। पुराने डी॰ टी॰ एस॰ के स्थान पर जो साहब आये थे उनसे इनकी कुछ कहा सुनी हो गयी जिसके परिणाम-स्वरूप इन्होंने नौकरी से इस्तीफा दे दिया और स्वतन्त्र होकर हिन्दी की सेवा में जुट गये। तब से बराबर द्विवेदीजी मातृभाषा का उपकार ही करते रहे।

परिस्थितियां—द्विवेजी के साहित्य-क्षेत्र में आने के समय हिन्दी की दशा बहुत ही अस्थिर थी। कविता के क्षेत्र में जो नयी जान भारतेन्दुजी ने डाली थी उससे यद्यपि बहुत उपकार हुआ था और कविता धीरे-धीरे जीवन के समीप आती जाती थी किन्तु उसकी भाषा ब्रजभाषा ही थी जिससे आगे चल कर बड़ी विषम स्थिति उत्पन्न हो गयी। गद्य की भाषा खड़ी और कविता की भाषा ब्रजभाषा होने से खड़ी बोली बनाम ब्रजभाषा का द्वन्द सामने आया और हिन्दी के कवि दो समाजों में बँट गये, जो एक दूसरे का प्रबल विरोध करते थे। द्विवेदीजी के समय में यही द्वन्द्व प्रबल रूप धारण किये हुए था। गद्य की दशा और भी बुरी थी। भारतेन्दु के समय से गद्य की प्रणाली निश्चित रूप से विकसित होने लगी थी। गद्य के प्रत्येक क्षेत्र निबन्ध, उपन्यास, नाटक आदि की ओर ध्यान दिया जा रहा था, बंगला तथा अंग्रेजी आदि के ग्रन्थों के अनुवाद से भाषा का भण्डार भरा जा रहा था पर अनुवादकर्ता तथा भारतेन्दु के अनन्तर आने वाले अधिकांश साहित्य-सेवियों का हिन्दी से अधिक परिचय न होने से, भाषा में शिथिलता, व्याकरण दोष तथा अंग्रेजी और बँगलापन की बू