पृष्ठ:रसज्ञ रञ्जन.djvu/५४

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५४
रसज्ञ-रञ्जन
 

झाड़ियों का नाम न हो। वह खूब साफ और हमवार हो, जिससे उस पर चलने वाला आराम से चला जाय। जिस तरह सडक जा भी ऊची नीची होने बाइसिकल (पैरगाड़ी) के सवार को दचके लगते हैं उसी तरह कविता की सडक यदि थोडी भी नाहसवार हुई तो पढने वाले के हृदय पर घला लगे विना नहीं रहता। कविता-रूपी सडक के इधर-उधर स्वच्छ पानी के नदी-नाले वहते हो, दोनो तरफ फलो-कूल से लदे हुए पेड हों, जगह- जगह पर विश्रास करने योग्य स्थान बने हो; प्राकृतिक दृश्यो की नयी-नयी झॉवि प्रॉ ऑखो को लुभाती हो। दुनिया में आज तक जितने अच्छे अच्छे कवि हु है उनकी कावता ऐसी ही देखी गयी है। अटपटे भाव और अटपटे शब्द प्रयोग करने वाले कांधयो की कमी कद्र नहीं हुई। यदि कभी किसी को कुछ हाई भी है तो थोड़े ही दिनो तक। ऐसे कवि विस्मृति के अन्धकार में ऐसे छिप गए है कि इस समय उनका कोई नाम तक नहीं जानता। एक मात्र सूची शब्द-झङ्कार ही जिन कवियो की करामात है उन्हें चाहिए कि वे एक दम ही बोलना बन्द कर दे।

भाव चाहे कैसा ही ऊंचा क्यों न हो, पेचीदा न होना चाहिए। वह ऐसे शब्दो के द्वारा प्रकट किया जाना चाहिए, जिनसे सब लोग परिचित हो। मतलब यह कि भाषा बोल-चाल की. हो। क्योकि कविता की भाषा बोल-चाल से जितनी ही अधिक दूर जा पड़ती है उतनी ही उसकी सादगी कम हो जाती है। गेल-चा से म-लब उस भापा से है, जिसे खास और आम सत्र बोलते, विद्वान् और अविद्वान् दोनों जिसे काम मे लाते हैं। इसी तरह कत्रि को ग्रह घिरे का भी म्बयाल रखना चाहिा। जो महावरे सर्वसम्मत है, उसी का प्रयोग करना चाहिए। हिन्दी औ उई में कुछ शब्द अन्य न.पापो के भी आ गये है।