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३—कवि और कविता
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खुशामद के जमाने में कविता की बुरी हालत होती है। जो कवि राजाओ, नवाबों या बादशाहों के आश्रय में रहते है, अथवा उनको खुश करने के इरादे से कविता करते है, उनको खुशामद, करनी पड़ती है। वे अपने आश्रय-दाताओं की इतनी प्रशंसा करते हैं, इतनी स्तुति करते हैं कि उनकी उक्तियाँ असलियत से बहुत दूर जा पड़ती हैं। इससे कविता को बहुत हानि पहुँचती है। विशेष करके शिक्षित और सभ्य देशों में कवि का काम, प्रभावोत्पादक रीति से, यथार्थ घटनाओं का वर्णन करना है। आकाश-कुसुमों के गुलदस्ते तैयार करना नहीं। अलङ्कार-शास्त्र के आचार्यों ने अतिशयोक्ति एक अलङ्कार ज़रूर माना है। परन्तु अभावोक्तियाँ भी क्या कोई अलङ्कार है? किसी कवि की वेसिर-पैर की बातें सुनकर किस समझदार आदमी को आनन्द प्राप्त हो सकता है। जिस समाज के लोग अपनी झूठी प्रशंसा सुनकर प्रसन्न होते है वह समाज कभी प्रशंसनीय नहीं समझा जाता। काबुल के अमीर हबीबुल्लाखाँ ने अपनी कविता-बद्ध निराधार प्रशंसा सुनने से, अभी कुछ दिन हुए, इनकार कर दिया। खुशामद-पसन्द आदमी कभी आदर की दृष्टि से नहीं देखे जाते।

कारण-वश अमीरों की झूठी प्रशंसा करने, अथवा किसी एक ही विषय का कविता में, कवि-समुदाय के आमरण लगे रहने से कविता की सीमा कट-छँटकर बहुत थोड़ी रह जाती है। इस तरह की कविता उर्दू में बहुत अधिक है। यदि यह कहें कि आशिकाना (शृङ्गारिक) कविता के सिवा और तरह की कविता उर्दू में है ही नहीं, तो बहुत बड़ी अत्युक्ति न होगी। किसी दीवान को उठाइये, किसी मसनवी को उठाइये, आशिक-माशूकों के रङ्गीन रहस्यों से आप उसे आरम्भ से अन्त तक रँगी हुई पाइयेगा। इश्क भी यदि सच्चा हो तो कविता में कुछ असलियत