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रसज्ञ-सञ्जन
 

आकाश; अनन्त पृथ्वी; अनन्त पर्वत-सभी पर कविता हो सकती है; सभी से उपदेश मिल सकता है और सभी के वर्णन से मनोरञ्जन हो सकता है। फिर क्या कारण है कि इन विषयो को छोड़ कर कोई-कोई कवि स्त्रियों की चेष्टाओ का वर्णन करना ही कविता की चरम सीमा समझते हैं? केवल अविचार और अन्ध-परम्परा! यदि “मेघनाद-वध" अथवा "यशवन्तराव महाकाव्य" वे नहीं लिख सकते, तो उनको ईश्वर की निःसीम सृष्टि में छोटे-छोटे सजीव अथवा निर्जीव पदार्थों को चुन कर उन्हीं पर छोटी-छोटी कविताएँ करनी चाहिए। अभ्यास करते- करते शायद, कभी, किसी समय, वे इससे अधिक योग्यता दिखलाने में समर्थ हों और दण्डी कवि के कथनानुसार* शायद कभी वाग्देवी उन पर सचमुच ही प्रसन्न हो जाय। नायिका के हाव-भावादिक के वर्णन का अभ्यास करने वालो पर भी सरस्वती की कृपा हो सकती है; परन्तु तदर्थ उसकी उपासना न करना ही अच्छा है।

संस्कृत में सहस्रशः उत्तमोत्तम काव्य विद्यमान हैं। अतः उस भाषा मे काव्यप्रकाश, ध्वन्यालोक, कुवलयानन्द, रसतरंगिणी आदि साहित्य के अनेक लक्षण-ग्रन्थो का होना अनुचित नहीं। परन्तु हिन्दी-भाषा में सत्काव्य का प्राय.अभाव है। इस कारण अलंकार और रस-विवेचन के झगड़ो से जटिल ग्रन्थों के बनने की हम कोई आवश्यकता नहीं दखते। 'हेला' हाव का

न वि विद्यते यद्यपि पूर्व वासना गुणानुवन्धि प्रतिभानमद्भुतम् । श्रुतेन यत्नेन च वागुपासिता ध्रुवं करोत्येव कमप्यनुग्रहम् ।।

-काव्यादर्श
 

अर्थात्-पूर्व वासना और अद्भुत प्रतिभा न होने पर भी शास्त्र के अनुशीलन और यल के अभिनिवेश द्वारा उपासना की गयी सरस्वती ऋतुमह अवश्य ही करती हैं।