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९—नल का दुस्तर दूत कार्य
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शर के शरों से तू बेतरह छिदा हुआ है। और, वज्र में छेद हो नहीं सकते। अतएव, कहता क्यों नहीं, कि क्यों तू फट कर दो टुकड़े नहीं हो जाता? हे जीवित! शीघ्र ही तुम यहाँ से पलायन करो। मेरा हृदय ही तुम्हारा घर है और वहाँ आग लग गईहै—वह जल रहा है। सुख की व्यर्थ आशा को तुम अब तक नहीं छोड़ते! धिक्कार है, तुम्हारी इस मूर्खता और तुम्हारे अपूर्व आलस्य को!!!

रे मन! जिस प्रिय वस्तु को तू चाहता था, उसके मिलने की जब आशा न रही तब तू मौत माँगने लगा। पर वह भी तुझे नहीं मिलती—न वह वस्तु ही मिलती है, न मौत ही मिलती है। जो कुछ तू चाहता है वही तेरे लिए अप्राप्य हो जाता है—इससे तू वियोग ही क्यों नहीं माँगता? मुझे यह इच्छा करनी चाहिए कि प्रियतम से मेरा वियोग हो जाय। परन्तु हाय! अब वह भी सम्भव नहीं। इस समय एक-एक क्षण मेरे लिए एक-एक युग हो रहा है। कब तक मुझे ये यातनाये सहनी पड़ेगीं? माँगने से मृत्यु भी नहीं मिलती। इधर मेरा अभिलषित कान्त मेरे हृदय को नहीं छोड़ता, उधर उसे मेरा मन नही छोड़ता, और, मन को भी मेरे प्राण नहीं छोड़ते। हाय-हाय, कैसी दुःख परम्परा है।

हे देववर्ग, जिसके एक ही कण में मेरे उग्र से उग्र सन्ताप का संहार हो सकता है; वह तुम्हारा दयासागर किसने पी लिया? क्या वह इस समय बिलकुल ही सूख गया है? यदि तुम मन में जरा भी इच्छा करो तो अपने एक ही संकल्प-कण से तुम मुझसे भी उत्तम और कोई नारी-रत्न अपने लिए प्राप्त कर सकते हो। मैं सर्वथा तुम्हारी अनुकम्पनीय हूं। अतएव मुझ पर तुम्हें इतना जुल्म न करना चाहिए। हे नैषध! मैं जी-जान से तुम पर अनुरक्त हूँ। तुम्हारे कारण, इस समय, मुझपर जो बीत रही है—जो यंत्रणा