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९—नल का दुस्तर दूत-कार्य
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आज ठहर जायँगे तो कल अपनी मुख-शोभा को नल के मुख-मंडल पर देख कर आपकी भी आँखे अपना जन्म सफल कर लेंगी। मैं हाथ जोड़ती हूं दिगीश्वरों के लिए अब फिर याचना करके मुझे आप तङ्ग न करें। फिर वैसे शब्द आपके मुँह से न निकलें। देखिए, मेरी आँखे बेतरह अश्रु-पूर्ण हो आई हैं।

प्रियतमा दमयन्ती की ऐसी पीयूषपूर्ण वाणी सुन कर नल ने अपने आपको बहुत धिक्कारा। दमयन्ती ने तो उसे कृतान्त-दूत ही बनाया था। उसने अपने आपको महानिष्ठुर कृतान्त ही समझा। दमयन्ती की करुणोक्तियाँ सुन कर नल का हृदय यद्यपि विदीर्ण हो गया, तथापि उसने, इतने पर भी अपने दूत-धर्म से च्युत होना उचित नहीं समझा। भीतर ही भीतर ठण्डी साँस लेकर धीरे-धीरे उसने इस प्रकार कहना आरम्भ किया—

सुरेश्वर इन्द के घर ही में कल्पवृक्ष है। उस पर इन्द्र ही का सर्वतोभाव से अधिकार है। यदि उससे इन्द्र यह याञ्चा करे कि तुम मेरे लिए दमयन्ती को ला दो, तो किस तरह तुम इन्द्र की जीवितेश्वरी होने से बच सकोगी? कल्पपादप से की गई याञ्चा कदापि व्यर्थ नहीं जाती। यदि तुम्हारे पाने की कामना से सर्वकामिक यज्ञ करे और अपनी ही आहवनीयादि मूर्त्तियों में हविष्य करना आरम्भ कर दे तो क्या होगा? इस तरह की वैदिक विधि मिथ्या नहीं हो सकती। तो तुम्हें अग्नि की प्राणेश्वरी होना ही पड़ेगा। दक्षिण दिशा में धर्म्मराज ही का अखण्ड राज्य है, उसी के राज्य में अगस्त्यमुनि रहते हैं। यदि उनसे धर्म्मराज यह कह दे कि इस दफे मैं तुम से धन-धान्यरूपी अपना षष्ठांश कर नहीं चाहता। उसके बदले तुम दमयन्ती को ला दो तो तुम्हारी क्या दशा होगी? वरुण के आश्रम में, यज्ञ के लिए सैकड़ों कामधेनु गायें बँधी रहती हैं। यदि वह उनमें से एक से भी तुम को पाने की याचना कर बैठें, तो तुम्हें उसके हस्तगत