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९—नल का दुस्तर दूत-कार्य
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भौमि! तुम्हारे सरस्वती-रस के प्रवाह में निमग्न हुआ मैं कब तक चक्कर खाया करूँ? अपने संकोच-भाव को जरा कम करके साफ-साफ कह क्यों नहीं देती कि किस सुरोत्तम को तुम कृतार्थ करना चाहती हो। मेरी राय में तो सहस्र-नेत्र सुरेन्द्र को छोड़ कर और कोई तुम्हारे योग्य वर नहीं। संभव है, क्षत्रिय-गोत्र में जन्म लेने के कारण अग्निदेव पर तुम अनुरक्त हो। इस दशा में उस ओजस्वी देवता की प्राप्ति के लिए तुम्हारा मनोरथवती होना भी सर्वथा उचित है। मैं जानता हूँ कि तुम बड़ी ही धर्मशीला हो। अतएव तुमने धर्मराज को अपने चित्त का अतिथि बनाया हो, तो उसका भी मैं अनुमोदन करता हूँ। योग्य से योग्य का संगम होना चाहिए। शिरिष-पुष्प के समान कोमल गात को होने के कारण यदि तुम सारे मृदुल पदार्थों के राजा वरुण को चाहती हो तो वही क्यों न तुम्हारा पणिग्रहण करें। निशा ने तो इसी निमित्त शीतांशु को अपना पति बनाया है। सुरपुर परित्याग करके लक्ष्मी-पति भगवान जिस रमणीक समुद्र में दिन-रात बिहार किया करते है, वहीं तुम भी वारीश्वर वरुण के साथ आनन्द से विहार कर सकती हो।

यद्यपि नल के इन वचनों में दमयन्ती के देव-सम्बन्धी अनुराग का मिथ्या आरोप था, अतएव वे सर्वथा विडम्बनीय थे, तथापि नल की उक्तियों को वह बड़े आदर की चीज समझती थी। इससे कान सहित अपने एक कपोल को हाथ पर रखे हुए दमयन्ती चुपचाप बैठी रही। खुले हुए कान से नल की उक्तियाँ मात्र उसने सुनी। दूसरे कान को हाथ से ढक कर देव-सम्बन्धी अपने अनुराग की बातें उसने अनुसुनी कर दी।

बड़ी देर तक सिर नीचा किये हुए दमयन्ती सोचती रही। तदनन्तर लम्बी उसाँस लेकर वह इस प्रकार करुण वचन बोली—