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९—नल का दुस्तर दूत-कार्य
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कर रहे हैं, पर तुम उनसे विमुख हो रही हो। यह पहेली मेरी समझ में नही आती। मुझे तो तुम्हारी बातें बड़ी ही कौतुकपूर्ण मालूम होती है। क्या यह भी कहीं सुना गया है कि निधि किसी निर्धन के घर में घुसने की चेष्टा करे और वह भीतर से किवाड़ बन्द कर के उसे बाहर निकाल दे? तुम्हारा व्यवहार इस समय ठीक इसी तरह का हो रहा है। यह जान कर कि तुम पर सुरेन्द्र का इतना अनुराग है, मैं तुम्हें परम सौभाग्यवती समझता हूँ, और तुम्हारा हृदय से आदर करता हूँ। परन्तु तुम ऐसे सौभाग्यवर्द्धक व्यापार से पराङ‍्मुखी हो रही हो। चन्द्रमुखी! यह तो बड़े ही आश्चर्य की बात है। मर्त्यजन्म पाई हुई मानवी स्त्री अमरतत्व पाये हुये देवताओं को नहीं चाहती, यह बिलकुल ही नयी बात है, जिसे मैं आज तुम्हारे मुख से सुन रहा हूँ। यह तुम्हारा दुराग्रहमात्र है। दुख की बात है जो सब प्रकार तुम्हारा हित चाहने वाला तुम्हारा पिता भी हमारे इस दुराग्रह दोष को दूर नहीं कर देता। तुम तो स्वयं भी समझदार हो—विदुषी कहलाती हो। अतएव महेन्द्र को छोड़ कर नलप्राप्ति की अभिलाषा रखने में तुम्हे क्या लज्जा भी नहीं आती? सारे सुरों के अधीश्वर के मुकाबिले में क्यों तुम य.कश्चित् नरेश्वर को अधिक अच्छा समझ रही हो? उसका इतना आदर क्यों? इसे भावी प्रबलता ही कहना चाहिए। देखो न इतना चौड़ा मुख छोड़ कर श्वासोच्छवास ने संकीर्ण-नासा की राह से आने जाने का श्रम उठाया है। यह भावी की बात नहीं तो और क्या है? दूसरे जन्म मे जिस सुर लोक की प्राप्ति के लिए बड़े-बड़े ऋषि मुनि अपने शरीर को, तपस्यारूपी अग्नि में हुत कर देते हैं, वही सुरलोक स्वयं ही तुम्हें इसी जन्म में, अपने यहाँ ले जाने के लिए उतावला हो रहा है! परन्तु तुम उसकी एक नहीं सुनती। तुम्हारी मूढ़ता की सीमा नहीं।