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९—नल का दुस्तर दूत-कार्य्य
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इस पर दमयन्ती ने कहा—यह सुन कर मुझे बड़ी खुशी हुई कि आप सुधांशुवंश के आभरण हैं। तथापि आपकी कुछ विशेष बातों के सम्बन्ध मे मेरा संशय अभी तक दूर नहीं हुआ। किसी-किसी विषय में तो आपने बड़ी बेढब वाग्मिता दिखाई और किसी-किसी में बिलकुल ही मौनभाव धारण कर लिया। आपकी यह नीति मेरी समझ में नहीं आई। जो कुछ मेरी समझ में अब तक आया है वह यह है कि आप वञ्चना करने में बड़े चतुर हैं। प्रतारणा-विद्या आपकी खूब बढ़ी हुई है। अच्छी बात है। यदि आप अपना नाम बतला कर मेरे कानों को पीयूष-रस का पान न करावेंगे तो मैं भी आपके कथित-सन्देश का उत्तर न दूँगी। परपुरुष के साथ बातें करने का अधिकार कुल-कामिनियों को कहाँ? यह भी तो महात्माओं ही का बनाया हुआ नियम है। आप इसे जानते हैं या नहीं?

नल ने अपनी प्रियतमा दमयन्ती के इस उत्तर का हृदय से अभिनन्दन किया। मन ही मन उसने दमयन्ती के भाषण-चातुर्य्य की प्रशंसा की। दमयन्ती की कोटि-कल्पना सुन कर वह निरुत्तर हो गया। उसने मुस्कराकर सिर्फ यह कहा कि शहद को भी मात करने वाले, ऐसे मीठे, वचनों का प्रयोग तुम्हें, सचमुच ही, पर-पुरुष के विषय में करना उचित नहीं। पर दमयन्ती के लिए वह पर-पुरुष थोड़े ही था।

इसके अनन्तर नल ने बहुत गिड़गिड़ा कर इस तरह भाषण आरम्भ किया—

हाय! तुम मेरे इस इतने बड़े श्रम को विफल किये देती हो। चारों में से किसी एक दिक‍्पाल को अपनी कृपा का पात्र नहीं बनातीं। अमृत-तुल्य रस के स्नान से पवित्र हुई अपनी ऐसी मधुरिमा-मय वाणी से तुम्हें देवताओं ही की उपासना करनी