अद्भुत रसाभास-जब किसी विषय का वर्णन आश्चर्य की सीमा से आगे बढकर असभवता तक पहुंच जाता है, वहाँ अद्भुत रसाभास होता है क्योंकि इस प्रकार का वर्णन चित नहीं होता । यथा- उछरि अजनीसुअन ने लीलि लियो ततकाल । निरखि बाल रविबिम्ब को सुमधुर फल सम लाल । 'सूर्यो आत्मा हि जगत ।' सूर्य जगत् की आत्मा है, वह हिदू जाति का आराध्य देव है, उसके विषय में यह लिखना कि उसको नर ने नहीं वरन् वानर ने निगल लिया, कितना बड़ा अनौचित्य है। सूर्य के सामने अजनीनदन की सत्ता हिमालय के सामने एक चींटे इतनी सी नहीं, भला वे सूर्य को क्या निगलते । जिस कार्य का उल्लेख दोहे मे है, वह अद्भुत क्या महान् अद्भुत है, परतु प्रलापमात्र है और अनौचित्य पूर्ण भी, अतएव उसमे प्रत्यक्ष रसाभास है । एक दोहा और देखिये- का न करति ललना, हनति पति को ले करवाल । कॅपि कलक भय ते बनति कोख लाल को काल || एक ललना का कर मे करवाल लेकर पतिदेव का वध करना, अपने फूल से कोमल लाल का कलक भय से नाश कर देना, कितना विस्मयपूर्ण और आश्चर्यजनक है। किंतु दु ख है कि ससार में ऐसा होता है। दोनो कार्यों मे अनौचित्य की पराकाष्ठा है, इसलिये पद्य में अद्भुत रसाभास मौजूद है। इसी प्रकार के रसामान के और उदाहरण दिये जा सकते हैं, किंतु मैं समझता हूँ विपय स्पष्ट हो गया, अतएव विस्तार की आवश्यकता नही । रसाभास का लक्षण क्या है, और वह रस ही होगा या और कुल, इसकी मीमामा रसगगाधरकार ने विशेपनया की है, अभिज्ञता के लिये उनका विचार भी नीचे उद्धृत किया जाता है- "तत्रानुचितविभावालम्बनत्व रसाभासत्वम् । विभावादावनौचित्य पुनर्लो-
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