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इस समय हिंदी संसार के कुछ विद्वानों की श्रृंगार रस पर बड़ी कड़ी दृष्टि है, सभव है ग्रंथ में कुछ ऐसा स्थान या अंश पाया जावे, जो उन्हें अश्लील ज्ञात हो। ऐसी दशा में उन सज्जनों से मेरा निवेदन यह है कि ग्रंथ के कुछ अशों अथवा विशेष स्थानों के आधार से उसके विषय में कोई सिद्धात निश्चित करना युक्ति-संगत न होगा। ग्रंथ के अधिकांश स्थानों को देखकर ही मेरे उद्देश्य की उचित मीमांसा हो सकेगी। दूसरी बात यह कि अश्लीलता का निर्णय उचित दृष्टि से ही करना पड़ेगा, दोष-प्रदर्शन की दृष्टि से नहीं। आलोचक को न्याय तुला हाथ में रखना चाहिये और आवेश में न आना चाहिये, अन्यथा सत्य का अपलाप होगा। प्राय देखा गया है कि एक विद्वान् जिसे अश्लील नहीं मानता, दूसरा उसी को अश्लील मानकर वाद करने के लिये कमर कस लेता है। इसका हेतु रुचिवैचित्र्य अथवा मत-भेद है—जो सर्वत्र दृष्टिगत होता है। दोनों आलाचना-विचार के उत्पादक हैं, किंतु अविवेक उन्हें उत्पीड़क बना देता है। मैं अश्लीलता के विषय में पहले बहुत कुछ लिख चुका हूँ, इससे इस विषय में यहाँ विशेष लिखना पिष्ट पेषण मात्र होगा। परतु इतनी प्रार्थना अवश्य है कि अश्लीलता की मीमासा के समय अपने पक्ष को न देखकर दूसरे के पक्ष को भी देखना चाहिये। शरीर में ऐसे अनेक पदार्थ हैं, जो उससे अलग होकर अश्लीलतम बन जाते हैं, परंतु अपने स्थान पर उनकी उपयोगिता असदिग्ध है। मेरे कथन का यह प्रयोजन नहीं कि ग्रंथ के गुण दोष की आलोचना न की जावे, और जहाँ जहाँ वास्तव में अश्लीलता हो, उससे मुझे अभिज्ञ न किया जावे। प्रायः मनुष्य अपने दोषों के विषय में अंधा होता है, इसलिये यदि बंद आँखें खोल दी जावें, इससे बढ़कर दूसरी कौन कृपालुता होगी? आँखें खुल जाने पर अथवा अपना दोष जान लेने पर मैं सावधान तो हो ही जाऊँगा, दूसरे संस्करण में ग्रंथ के संशोधन की भी चेष्टा करूँगा। इसलिये जिस मार्ग से ऐसे दो महान् कार्य्य हो सकें उसको रोकने की चेष्टा मैं