६६ युवको के सौंदर्य-सरोज का मधुप है, इसलिये उसका बहुनायकनिष्ट होना प्रकट है। अनुभयनिष्ठ रति-इसका भाव यह है कि जहाँ नायिका में प्रेमभाव उत्पन्न होकर केवल नायक ही में उसका विकास हुआ हो, अर्थात् ऐसी रति जो नायक नायिका दोनों में उत्पन्न नहीं हुई, यथा- 'पिय तन छाँह बनन चहत तिय लखि छाँह डराति ।' पति का प्रेम तो इतना वर्द्धित है कि वह प्राय पत्नी के साथ ही रहना चाहता है, किंतु पत्नी इतनी सलज्ज और सकोचवती है कि पति की छाया देखकर भी घबराती है। रस की पूर्णता दोनों के प्रेमसाम्य ही से होती है, इसलिये यहाँ भी रसाभास है- प्रतिनायकनिष्ठ रति-~अर्थात् ऐसी रति जोनायक के शत्रु में हो, यथा- हो सुदर सुनयन रुचिर रुचि कामिनि चित चोर । कत चितपति है चतुर तिय प्रियतम अरि की ओर ।। पति के शत्रु को ओर उसके सौंदर्य के कारण किसी स्त्री को वार- वार अवलोकन करते देखकर किसी बुद्धिमती सखी को यह बात असंगत जान पड़ी, अतएव वह उसको सावधान करती है। क्योकि उसकी चितवन में उसके रूप के आकर्षण की झलक उसे दिखलाई पड़ी। यह प्रत्यक्ष रसाभास है, क्योंकि सहधर्मिणी की यह प्रवृत्ति अनौचित्य के अतर्गत है। अधमपात्रगत रति अर्थात् जो पात्र रति योग्य नहीं है, उससे प्रीतियुक्त होना, यथा- काहे लालायित बनत कोऊ द्विजकुल जात । मानि मानि यवनीन को नवनी कोमल गात ॥ एक विप्रवंश जात का किसी युवती की नवनीतकोमलांगी कहकर प्रशसा करना और उसके प्रेमपाश में बद्ध होना कितना अनुचित है,
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