६२ इस पद्य के उपमान मे प्रमाणाधिक्य है, अतएव अनौचित्य है, क्योकि कुच और पहाड़, भाल और चद्र की समता कैसी ? दिवा भोत तम को रखत गिरि निज गुहा मझार । सरनागत लघु जनहुँ को बडे करत उपकार ॥ जिसकी उपमा दी जाती है, अथवा उदाहरण देकर जिसे पुष्ट किया जाता है, वह कुछ असत्य-सा प्रतीत होता है। यदि ऐसा न होता तो उसके समर्थन की आवश्यकता न होती। तम जड़ पदार्थ है, वह भीत हो नहीं सकता, फिर सूर्य से डरकर उसका गुहा में छिपना कैसा । यदि यह सत्य नहीं है, तो असत्य का समर्थन और प्रतिपादन करना उचित नहीं । यदि ऐसा किया जावे तो वह अनौचित्य है, इस पद्य मे यही किया गया है, अतएव उसमें अनुचितार्थ दोष मौजूद है। अर्थ के अतिरिक्त अन्य अनौचित्यों के विपय मे साहित्यदर्पणकार यह लिखते हैं- "अन्यदनौचित्य देशकालादीनामन्यथा यद्वर्णनन्" "इसके अतिरिक्त देशकाल आदि के विरुद्ध वर्णन को भी अनौचित्य के अंतर्गत जानना चाहिये।" -हिंदी साहित्यदर्पण । एक दूसरे स्थान पर वे लिखते हैं- "अनौचित्यप्रवृत्तत्व आभासो रसभावयो" "अनौचित्य चात्र रसानां भरतादिप्रणीतलक्षणानां सामग्रीरहितत्वे प्रत्येक- देशयोगित्वोपलक्षणपर बोध्यम् ।" "रस और भाव यदि अनौचित्य से प्रवृत्त हुए हों तो उन्हें यथाक्रम रसाभास और भावाभास कहते हैं।" "अनौचित्य पद को यहाँ एकदेशयोगित्व का उपलक्षण जानना चाहिये, अर्थात् यह पद यहाँ लक्षण से 'एक सवध' का बोधक है। जहॉ भरत आदि से प्रणीत, रसभावादि के लक्षण पूर्ण रूप से सगत न
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