६० भी प्रकृति-विपर्यास होगा। अतएव इस प्रकार की वर्णनायें सदा गहित गिनी गई हैं और इसलिये उनको सदोप माना गया है। तव रसो से जहाँ तक उदात्त भावो का सम्पर्क है, वहाँ तक उसका संवध दिव्य, अदिव्य, दिव्यादिव्य, सभी प्रकार की प्रकृतियो से है, इसलिये उसकी परिधि के अतर्गत उनका सब प्रकार का वर्णन समुचित समझा जावेगा। कितु रमो के जो उद्वेगजनक अथवा विरक्तिकर प्रसग हैं, जिनसे देश, समाज, अथवा व्यक्ति विशेप का अहित होने की सभावना हो, जो आत्मशुद्धि अथवा आतरिक विकाश के विरोधी किवा उत्पादक हो- जैसे शृगार रस के अश्लील अथवा अमर्यादित विपय, उनसे जब अदिव्य प्रकृति ही कलुपित होती है, तो दिव्य अथवा दिव्यादिव्य प्रकृति कैसे लांछित न होगी । क्रोधाधता, कामुकता, किकर्तव्यविमूढ़ता आदि अदिव्य प्रकृति को भी उपहास्य और निदित बनाती है। फिर ये दिव्य और दिव्यादिव्य प्रकृतियो को कलंकित और जघन्य क्यो न बनायेंगी । जिस अात्मवल को न्यूनता से अदिव्य प्रकृति भी अपनी महत्ता खो देती है, उसके हास से दिव्य और दिव्या दिव्य प्रकृतियो का कितना पतन होगा, वे कितने अश्रद्धाभाजन बनेंगे, इसको सभी सहृदय स्वय समझ सकते हैं। इसीलिये यदि उनके चरित्र में ऐसे वर्णन होंगे, जिनमें उक्त अवगुण और दुर्भाव पाये जावेंगे, तो उनमे भी प्रकृति-विपर्यय दोप माना जावेगा। इसी प्रकार और वातो को भी समझना चाहिये। १५~अर्थ अथवा अन्य किसी के औचित्य को भंग कर देना- अर्थ के अनौचित्य के विषय में साहित्यदर्पणकार लिखते हैं- "एभ्यः पृथगलकारदापाणां नैव सभवः" 'एभ्य उक्तदोपेभ्य । तथा हि उपमायामसादृश्यासमवयोरुपमानस्य जा. प्रमाणगतन्यूनत्याधिकत्वयोरान्तरन्यासे उत्येक्षितार्थसमर्थने चानुचितार्थत्वम्' "इन दोपो से पृथक् अलकार दोप नहीं हो सकते, वे इन दोपो के अतर्गत हैं। ,
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