४६ विरोध का परिहार हो जाता है- (१) जव दो विरोधी रसो का आधार एक हो तो उनका आधार भिन्न-भिन्न कर देने से। (२) दो विरोधी रसो के मध्य मे एक ऐसे रस को स्थापित कर देन से जो दोनो का अविरोधी हो । (3) जब विरोधी रस का आधार स्मरण हो । (४) जब दो विरोधी रसो में साम्य स्थापित कर दिया जावे । (५) जब दो विरोधी रस किमी अन्य रस के अंगांगी भाव से अंग बन गये हो। अब उदाहरण देता हू-निम्नलिखित दोहे को देखिये- बान तानि के कान लौं खेंचे कठिन कमान । ममरि भभरि सारे सुभट भागे भीरु समान ॥ वीर और भयानक एक दूसरे के विरोधी है, इसलिये किसी पद्य मे एक साथ नहीं आ सकते, परन्तु इस पद्य मे दोनो साथ ओये है. फिर भी रसप्रवाह मे वाधा नहीं पड़ी, कारण यह है कि पहले चरण का पालंबन (आधार ) वीर और दूसरे चरण का आलंबन (आधार) भयातुर सुभट हैं । यद्यपि दोनो रसो का आधार एक ही पद्य है. किंतु दोनो के दो श्रालंबन हो जाने के कारण वह वाघा दूर हो गई, जो एक ही आलंबन होने से उपस्थित होती, इसलिये रस का "प्रास्वादन अवाध रहा। पद्य पढ़कर स्वयं आपको इसका अनुभव होगा । रस-परिहार के पहले नियम मे यही बात कही गई है। अब दूसरे नियम का उदाहरण लीजिये- का भो जो उर में भरयो भव विराग वर रित्त । भुवन-विमोदक माधुरी हरति न कामो चित्त ।। बड़े-बड़े विरागियों के चित्त को भी अलौकिक लावण्य विचलित कर देता है. यह बात प्रविदित नहीं. इस दोहे में इसी बात का वर्णन , ४
पृष्ठ:रसकलस.djvu/७४
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।