पहुँचेगी, यह नहीं कहा जा सकता। किंतु अाजकल सर्वसम्मत नव ही रस हैं। भाव और रस पर मेरा एक वृहत विवेचन वात्सल्य रस शीर्षक आगे लिखे जानेवाले एक लेख मे होगा। इसलिये इस अवसर पर रस और भाव पर अधिक लिखने की चेष्टा नहीं की गई। कुछ लोग कहते हैं कि काव्यो मे जो भाव व्यापक और अधिक प्रभावजनक पाये गये और जिनमे स्थायिता भी अधिक मिली, रंगशाला में अभिनय के समय जो मनोभाव आदि से अंत तक स्थिर और यथावसर अधिकाधिक प्रभाव विस्तारपटु और विशेष आकर्षक देखे गये, जिनकी प्रतीति काव्य और नाट्य मे प्राय' अथवा लगातार होती है, जिनमे चमत्कार के साथ विमुग्धकारिता भी मिलती है- जब साहित्य-मर्मनो की दृष्टि उनकी ओर विशेपतया आकृष्ट हुई, तब उन्होंने उनको विवेचनापूर्वक स्थायी भाव माना, और उन्हीं के आधार से फिर रस की कल्पना की। यह कार्य एक काल मे नहीं, धीरे-धीरे क्रमश. हुआ। आज भी यह विचारपरम्परा अग्रतिहत है। रसगंगा- धरकार इसी सिद्धांत के थे-वे लिखते है- "तत्र आप्रबन्धस्थिरत्वादमोपां भावानां स्थायित्वम् । न च चित्तवृत्ति- रूपाणामेपामाशुविनाशित्वेन स्थिरत्व दुर्लभ वासनारूपतया स्थिरत्व तु व्यभि- चारिष्यति प्रसक्तमिति वाच्यम् । वासनारूपाणाममीपो मुहुर्मुहुरभिव्यक्तरेव स्थिर- पदार्थत्वात् व्यभिचारिणां तु नैव तदभिव्यक्तविद्युदुद्योतप्रायत्वात्" । 'चे रति अादिक भाच किसी काव्यादिक मे उसकी समाप्ति पर्यंत स्थिर रहते हैं, अत' इनको स्थायी भाव कहते हैं। श्राप कहेंगे कि ये तो चित्त-वृत्ति स्वरूप हैं, अतएव तत्काल नष्ट हो जानेवाले पदार्थ है. इस कारण इनका स्थिर होना दुर्लभ है, फिर इन्हे स्थायी कैसे कहा जा सकता है ? और यदि वामनारूप से इनको स्थिर माना जावे, तो व्यभिचारी भाव भी हमारे अंतःकरणो में वासनारूप से विद्यमान रहते हैं. प्रत. वे भी स्थायी भाव हो जावेंगे। इसका उत्तर यह है कि यहाँ -
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