वे सचमुच हृदय से उसे कुत्सा योग्य समझते हैं, या अंध-परपरा में पड़े हैं। यदि वास्तव में हृदय से उसे ऐसा समझते हैं, तो उनकी रचनाओं में उसका स्रोत क्यो बह रहा है? और वे क्यों उसकी सरसता, मोहकता और व्यापकता पर लट्टू हैं। समझ लेना चाहिये नायिका भेद की रचनाएँ ही श्रृंगार रस नहीं है। जिन निरूपणों में प्रेम का आभास है, जिन कविताओं में प्रकृति की छटाओं का वर्णन है, जहाँ मधुरता, सरलता, हृदयप्राहिता, और सौंदर्य है, वहीं श्रृंगार रस विराजमान है।
मैं वह स्वीकार करता हूँ कि प्राचीन प्रणाली का अनुकरण ही आजकल भी अधिकाश वर्तमान ब्रजभाषा के कवि कर रहे हैं, निस्संदेह यह एक बहुत बड़ी त्रुटि है। समय को देखना चाहिये, और सामयिकता का अपनी कृति में अवश्य स्थान देना चाहिये। देश-संकटों की उपेक्षा देश-द्रोह है, और जाति के कष्टों पर दृष्टि न डालकर अपने रंग मे मस्त रहना महान् अनर्थ। मातृभूमि की जिसने उचित सेवा समय पर न की है वह कुल-कलक है, और जिसने पतित समाज का उद्धार नहीं किया वह पामर। यह विचार कर ही प्राचीन प्रणाली के कवियो की दृष्टि इधर आकर्षण करने के लिये 'रसकलस' की रचना की गई है। आजतक जितने 'रस-ग्रंथ' बने हैं, उनमें श्रृंगार रस का ही अयथा विस्तार है, और रसो का वर्णन नाम मात्र है। इसके अतिरिक्त संचारी भावो के उदाहरण भी प्राय: श्रृंगार रस के ही दिये गये हैं, ऐसा न करके अन्य विषयो का उदाहरण भी उनमें होना चाहिये था। 'रसकलस' में इन बातों का आदर्श उपस्थित किया गया है, और बतलाया गया है कि किस प्रकार अन्य रसों के वर्णन का विस्तार किया जा सकता है, और जाति, देश और समाज संशोधन सबंधी विषयों को उनमें और संचारी भावों में स्थान दिया जा सकता है। इस ग्रंथ में देशप्रेमिका, जातिप्रेमिका और समाजप्रेमिका आदि नाम देकर कुछ ऐसी नायिकाओं की भी कल्पना की गई है, जो बिल्कुल नई है, परंतु समाज और