४४ ससार से जितने कामप्रद सुख हैं, जितने दिव्य और महान् सुख हैं, वे तृष्णाक्षय सुख के सोलहवें भाग के बराबर भी नहीं हैं। पडितराज जगन्नाथ ने साधारण निर्वेद को व्यभिचारी माना है, और रस-अवस्था-प्राप्त को स्थायी । उसी को प्रदीपकारने 'शम' कहा है। सिद्धांत दोनों का एक है। चाहे उसे शाम कहें या उच्च कोटि का निर्वेद-किंतु यह स्थायी भाव कितना महत्त्व रखता है, वह महर्षि द्वैपायन के कथन से प्रकट है। कोई समय था, जब भारतवर्ष मे शांत रस की धारा बह रही थी, आज भी उसका प्रवाह बहुत कुछ सुरक्षित है। आर्य-सस्कृति में उसकी बड़ी महत्ता है, और इस जाति के समस्त महान् अथ उच्च कठ से उसका यशोगान कर रहे हैं। मानव-जीवन में त्याग की बड़ी महिमा है और इसमें सदेह नहीं कि सच्ची शांति और परमानद की प्राप्ति उसी से होती है। ऐसी अवस्था मे उसका रस में न गिना जाना, असभव था। काल पाकर मनीपियो की दृष्टि इधर गई और वह भी रसो मे गिना गया। यहाँ तक कि नाटक मे भी उसको स्थान मिला और इस रस का 'प्रबोध चन्द्रोदय' नाटक एक क्षमता- शालिनी लेखनी द्वारा निर्मित होकर सस्कृत-साहित्य में समादरणीय स्थान पा गया। रस की संख्या नव तक आकर समाप्त हो गई, यह नहीं कहा जा सकता। अव भी नये-नये रसो की कल्पना हो रही है। वास्तविक बात यह है कि भाव ही उत्कर्ष पाकर रस का स्वरूप धारण करते हैं काव्यप्रकाशकार कहते हैं- रतिर्देवादिविषया व्यभिचारी तथाञ्जितः' 'भाव. प्रोक्त' देवादि (अर्थात् देव, मुनि, गुरु, नृप, पिता, ज्येष्ट भ्राता आदि गुरुजनो और लघु भ्राता एव पुत्रादि की रति और व्यजित व्यभिचारी की सज्ञा भाव है।) इस सिद्वात के अनुसार देव भक्ति और वात्सल्य आदि भाव हैं, रस नहीं, किंतु कुछ प्राचार्यों ने इन्हें भी रस माना है। कुछ लोग मस्य को रम कहने लगे हैं। अतएव रस की संख्या कहाँ तक
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