३८ 7 जहाँ इनमे से कोई एक या दो होता है, वहॉ आक्षेप द्वारा शेप दो या एक का भी ग्रहण हो जाता है। यही बात पडितराज जगन्नाथ भी रसगगाधर मे कहते हैं-यथा "एव च प्रामाणि के मिलितानां व्यञ्जकत्वे यत्र क्वचिदेकस्मादेवा साधारणा- द्रसोद्वोधस्तत्रेतरद्वयमाक्षेप्यमनोनानैकान्तिकत्वम्" । "ऐसे स्थलो में अन्य दोनो का आक्षेप कर लिया जाता है, सो यह बात नहीं है कि रस कहीं सम्मिलितो से उत्पन्न होता है, और कहीं एक ही से, किंतु तीनों के सम्मेलन के बिना रस उत्पन्न होता ही नहीं ।" -हिदी रसगंगाधर इसके अतिरिक्त एक बात और है। वह यह कि यदि केवल विभाव या अनुभाव अथवा सचारी भाव से रस की उत्पत्ति होने लगे तो रस के निर्णय मे व्याघात उपस्थित होगा। कारण यह है कि एक विभाव अनेक रसो का विभाव हो सकता है, ऐसे ही एक अनुभाव अथवा सचारी भाव कई रसों मे पाया जाता है । काव्यप्रकाशकार लिखते हैं- 'व्याघ्रादयो विभावा भयानक स्येव वीराद्भुतरौद्राणाम् । अश्रुपाता दयोऽनु- भावाः शृगारत्येव करुणभयानकयो, चिन्तादयो व्यभिचारिण. शृगारस्येव वीर- करुणभयानकानामिति, पृथगनैकान्तिकत्वात् सूत्रे मिलिता निर्दिष्टा ।' "भयानक रस के विभाव व्याघ्र आदि वीर, अद्भुत और रौद्र रस के भी विभाव, शृगार रस के अनुभाव अश्रुपातादिक करुण और भया- नक रस के भी अनुभाव और चितादिक व्यभिचारी शृगार रस के अतिरिक्त वीर करुण और भयानकादि अन्य रसो के भी व्यभिचारी भाव हो सकते हैं। इसीलिये सूत्रकार भरत मुनि ने सूत्र मे इन सब के सम्मिलन से ही रस की उत्पत्ति मानी है, पृथकत्व से नही ।" -हिदी रसगगाधर ऐमी अवस्था मे यह स्पष्ट है कि विभाव अनुभाव और सचारी.
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