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३६१ रस निरूपण 'हरिऔध' कल ौ कलेस काल-कौतुक है सदा नॉहि एक ही सी काहू की घरी रहै। धूरि-भूरि-भरी गरी छिन्न-करी भूपै कौं बस्तु हूँ अनोखी मंजु-माला-सी परी रहै।॥४॥ आत्मग्लानि कवित्त- रे-दुख घेरे रहैं चल फिर न सकहिं परे हैं फेर मॉहिं तऊ वार बार फेरे पाप-पथ ते फिरे नहीं। घरी घरी घर के घनेरे- तब हूँ रुचिर-रुचि घेरे ते घिरे नहीं । 'हरिऔध' आयु-भोग-भाजन भरत जात चित-भीरुताते तऊ उभरि भिरे नहीं । गई ऑखितऊ आँखि होति ऑखि-वारन की गिरे दॉत तऊ दॉत विख के गिरे नहीं ॥१॥ बड़े-बड़े - लोचन के लालची बनेई रहे विसर न पाई वात वेदी - विकसी की है। छी छी छो छी कहैं लोग तऊ है न छी छीसुधि सुछवि न भूल पाई छाती-उकसी की है। 'हरिऔध' चूकि चूकि करहूँ न चूक चुकी कसक सकी न कढ़ि कंचुकी कसी की है। उकसि उकसि आज हूँ न कस मैं है मन अकस न छूटि पाई काम-अकसी की है ॥२॥