३५५ रस निरूपण -- 'हरिऔध' रण मैं लुठत है बिपुल-लोथ पल पल शोणित प्रवाह अधिकात है। घात मॉहि बैठि गीध आँत ऐंचि लेत गात नोचि नोचि खात जम्बुक-जमात है ॥ ४ ॥ सवैया- काल कलेऊ बनावत लोक को कालिका मुंढन ठाट है ठाटति । गीध-समूह निकारत ऑत है त्यों करवार घने-सिर काटति । ए 'हरिऔध' अरी रण-बाहिनी लोथते है धरनी-तल पाटति । नाचति हाड़ चबाइ कै योगिनी चाट ते लोहू चुरैल है चाटति ।।५। मानव-तन कवित्त- कीचर भरे हैं नैन नेटा भरी नासिका है थूक औ खेखार लार पूरित बदन है । नख ते विहीन अहै एक ऑगुरी हूँ नाहिं हाड़ को है ढाँचो रोम-संख्या अनगन है । 'हरिऔध' अंग अंग अहै चाम-श्रावरित रक्त मेद मन्ना मास स्वेद को सदन है। कूर-करतूत-भरो खूत-भरो मल-भरो मूत-भरो मानव को तन है ।।१।। स्मशान-भूमि कवित्त- कहूँ धूम उठत बरति कतहूँ है चिता कहूँ होत रोर कहूँ अरथी धरी है। कहूँ हाड़ परो कहूँ जरो अध-जरो वॉस कहूँ गीध-भीर मास नोचत अरी अहै। छूत-भरो
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