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३५३ रस निरूपण वीभत्स स्थायी भाव-जुगुप्सा अथवा ग्लानि वा घृणा देवता-महाकाल वर्ण-नील आलंवन-दुर्गन्ध युक्त पदार्थ, मास, रुधिर, चर्वी, विष्टा, मूत्र आदि- उद्दीपन-दुर्गन्धित पदार्थों में कीड़े पड़ना, उनपर मक्षिकादि पतन । अनुभाव-थूकना, मुँह फेर लेना, आँख बंद करना, नाक सिकोड़ना, रोमाच यादि। सचारी भाव-मोह, मूर्छा, श्रावेग, व्याधि, आदि । इस रस में ग्लानि और घृणा की परिपूर्णता होती है और इन्हीं भावों द्वारा यह पुष्ट होता है। विशेष इस रस में जुगुप्सा की पुष्टि और ग्लानि एवं घृणा की अधिकता होती है इस रस का पात्र उद्वेगमय मानस होता है। युद्ध-भूमि - मनहरण कवित्त- काटि काटि ग्वात मुंड-माल में के मुंडन को मास मेद मन्ना ते अघाइ उमहति है। असित - कलेवर, डरावने विसाल - नेत्र, चावि - चावि हाड़ विकरालता गहति है।