रस निरूपण प्रकटे त्रिलोचन - त्रिसूल ते दुरंत - दव सारे प्रानी दावा मैं पतंग - सम परिगे। 'हरिऔध' कहै प्रलयंकर - प्रकोप भये मरिगे अमर बारि धार - वारे बरिगे। गरे के गरल ते अंगारे झरे भूतल पै नयन उघारे तारे पावक ते भरिगे ।। १७ ।। बाम देव बामता ते मर है अमर जैहै कोटि कोटि मनु - जात कीट जैसे मरिहैं। धूरि मोहिं मिलिहैं सुमेर से धरा - धर हूँ बारिद - प्रल के तेल - बिटु जैसे जरिहैं । 'हरिऔध' त्रिपुरारि - नयन तृतीय खुले तीनो लोक तूल के अंबार जैसे वरिहैं। काल - कोप पौन के हिलाये व्योम-तरु-तोम फल के समान सारे तारे झरि परिहै ।। १८ ।। लोकन की सत्ता औ महत्ता महा-भूतन की प्रलय महान विकराल कर लूटैगो । अतक अनंत की अनंतता को अंत है है टूक टूक ? वे ते छपा - कर न छूटैगो । 'हरिऔध' हर के अकांड - तांडवो के भये भांड के समान सारो ब्रहमांड फूटैगो । प्रबल प्रचंड - मारतंड खंड खंड ह है परम - उदंड - यम काल - दंड टूटेगो ।। १६ ।।
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