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३४६ रस निरूपण कहाँ के हैं माता पिता भ्राता क्यो बचैहैं काहि आप ही जो प्रवल दवारि मॉहि परिहै । 'हरिऔध' कैसे तो विमूढ़ जन कैहैं नाहि सिगरे सदन जो वरूद जैसे वरिहैं। धरती वनेगी जो पै जरती चिता-समान कैसे तो न सारे जगती के जीव जरिहैं ॥ ११ ॥ घसके, धरातल मैं धेसि जैहैं नाना जीव ज्याल माल लगे गेह धू धू धू धू जरिहैं । परि परि पावक मैं बिपुल - पहार-पंक्ति प्रलय-पटाका है प्रचंड रव करिहैं। 'हरिऔध' धार बार भू पै बज्र-पात है है काल-पेट दहत भुवन भूरि भरिहैं। कॉचे घट-तुल्य सारे-लोक फूटि फूटि जैहैं टकराये कोटि कोटि तारे टूटि परिहैं ।। १२ ।। नभ-तल भू-तल पताल है दवारि भरो दिवि है दहत है उदधि-बारि बरतो। तारक-कतार परि पावक मैं छार होत प्रानि - पुंज - प्रान है दुरंत - दव हरतो । 'हरिऔध' नाना - पुर - नगर-अगारन मैं उलका निपात है अंगारन को भरतो। कोपे काल प्रलय - अनल विकराल भयो जगे वाल - माल है जगत सारो जरतो॥ १३ ॥ को हाहा खात थहरात कोऊ भहरात कोक परो दुसह दवारि मैं दिखात है।