रसकलस ३४८ तृन-पुंज-सरिस दहत दिखरैहै मेरु बन मैं भयंकरी-लवर फूटि परिहै । 'हरिऔध' बारहो-दिवाकर उदित भये दुसह-दवारिता दिगंतन मैं भरिहै। तूल-सम सकल-धरातल को तरु-तोम तेल-सम तोय-निधि तोय-रासि जरिहै ।।८।। नाचि नाचि जरति जमात मनु-जातन की बारि ही मैं बरत रहत बारि-वारे हैं। विहग उड़त गिरि परत दहत जात पसु-बृद पावक मैं परि पचि हारे हैं। 'हरिऔध' कहाँ जाँय, कहा करें, कैसे बचें, प्रलय-प्रपच ते प्रपंचित विचारे हैं। अवनि गगन ही अहैं न उगिलत आग सरित-पतीन हूँ मैं भरित अंगारे हैं ।।९।। भानु ते भभरि भूरि-कपित-भयो है लोक पवि - उर प्रलय-प्रकोप ते हिलत है। द्रवी-भूत-धातुन को प्रवल-प्रवाह आइ पल पल नाना-प्रानि-पुंज को गिलत है। 'हरिऔध' हाहाकार पूरति दिगत भयो कहाँ जाय कोऊ कहीं बान ना मिलत है। तारे ही गगन ते न गिरहिं सरारे-भरे भूतल हूँ आग है अँगारे उगिलत है ॥१०॥ भभरि भभरि भागिहैं पै कहाँ जैहैं भागि हहरिहहरि कॉपिहै पै क्यों एवरि हैं।
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