रसकलस ३३८ सारी वारि-बूंदन को बारिधि मैं बोरि देहौं बसुधा ते बरखा बयारि को निकारिहौं । 'हरिऔध' बैर करिहैं जो मो बियोगिनी ते तो मैं मोर - कुल को मरोरि मारि डारिहौं । आदर न देहौं कबौं कादर पपीहन को बजमारे - बादर को उदर बिदारिहौं ॥१॥ मंजुल - रसाल मजरीन को बिथोरि देहौं रसना - बिहीन कैहौं कोकिल - नकारे को । कुसुम - समूह की कुसुमता निवारि देहौं मारि देहौं गुजत - मिलिंद - मतवारे को । ए हो 'हरिऔध' जो सतैहैं दुख देहैं मोहि बिरस बनहीं तो सरोज - रस - वारे को । अतक लौं सारे-सुख - तत को निपात कैहौं अत करि दैहौं या बसंत बजमारे को ।। २ ।। पवि-प्रहार मनहरण कवित्त- कैसे तो रसातल पठाइ देही तोको नाहि ताड़ित जो तोते होत भारत अवनि है। तू जो वार बार वार करत हितून पै तो मेरो कर कैसे ना कटारी तोहि हनिहै। 'हरिऔध' कहै एरे कुल के कलक जो तू तमकि तमकि जाति - नेहिन पै तनिहै । मेरी वंक - भी तो तेरी बकता नसैहै क्यों न मेरो लाल-नैन क्यो न तेरो काल बनिहै ॥१॥
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