३३७ रस निरूपण एरे कूर मानि है कही ना 'हरिऔध' की तो धूर माँहि तोको चूर चूर कै मिलहौं मैं। पसुता दिखेंहै तो पिसान करि देहों पीसि मसक समान मूढ़ तोको मीसि देहों मैं ॥१॥ सामने जो ऐहै महा बिकराल - काल हूँ तो लोहा लेइ तासों ताल ठोकि ठोकि लरिहौं। गरजि गिराइहौं गुमान मगरूरिन की तरजि तिलोक - पति हूँ को तेह हरिहौं । 'हरिऔध' धाइहौ कॅपाइ दिगदंतिन को बड़े बड़े धीर - धुर - धारिन को धरिहौं। वैरिन की अखियाँ बनैही वारि धारा मयी धूरि - धारा - मयी मैं बसुंधरा को करिहौं ॥ २ ॥ दून को जो लैहै ताप देहौं तिगुनो तो ताहि बहके बहॅक - बानि कॉहि वहकैहौं मैं। कीच जो उछारि है तो पकरि पछारि हौं पीछे जो परैगो तो न पीछे पाँच नहीं मैं 'हरिऔध' करिकै बिरोध का विरोधी कैहै वाको अवरोध वारि - धारा मै बहैहाँ मैं । चल जो दिखाइहै बिलाइहै बलूले सम बैर - बलि - बेदिका पैवाको बलि देहाँ मैं ।। ३ ।। उत्तेजिता वाला कवित्त- बीजुरी विलसि धन - अंक मैं जो कैहै केलि तो मैं ताको फूटी-ऑखि हूँ ते ना निहारिहौं ।
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