३५ IF ES 7 ५-रस मे ज्ञानस्वरूपता और स्वयं प्रकाशता है। साहित्य-दर्पण- फार कहते हैं- 'थभिन्नोऽपिस प्रमात्रा वासनोपनीतरत्यादितादात्म्येन गोचरीकृत. इति च ? जानत्य स्वप्रकाशत्वमनद्गीकुवतासुपरि वेदान्तिभिरेव पातनीयो दण्डः। 'यद्यपि रस आत्मा के स्वरूप से भिन्न है, चिन्मय है. तथापि अनादि वासना के द्वारा उपनीत अर्थात नान मे प्रतिभासित जो रत्यादिक उनके साथ अभिन्न रूप से गृहीत होता है। इस प्रकार रस को जानम्वरूपता और उसके साथ रत्यादि का अभेद सिद्ध हुया। नान स्वयं प्रकाश है, अतः रस भी स्वयंप्रकाश है। -विमलार्थप्रकाशिनी यहां पर यह प्रश्न हो सकता है कि क्या वास्तव में समस्त नाटक देखने और काव्य पढ़न-सुननेवालो को ब्रह्माम्बाद की प्राप्ति होती है ? उत्तर यह है कि नहीं । जिसकी जैसी वासना होगी, भाव-ग्रहण की जैसी शक्ति होगी, जिसमें जैसी सहदयता होगी, रस आस्वाद का वह वैसा ही अधिकारी होगा । रस की भी कोटि है, उसका लब से उच्च कोटि का स्वरूप ब्रह्मास्वाद है, उसके अधिकारी सर्वत्र थोड़े हैं। रम का माधारण रूप जो प्राय. उससे निम्नकोटि का होता है, वही सर्वसाधारण का उपभोग्य कहा जा सकता है, चाहे उसकी मात्रा में कुछ तारतम्य भले ही हो । जिसने नाट्यशाला में बैठकर नाटक देखा होगा, किसी सुवक्ता का व्याख्यान किसी सभा में सुना होगा अथवा किसी प्रसिद्ध संकीर्तन- मंडली का भक्तिमय कीर्तन श्रवण किया होगा, उनको इस बात का अनुभव स्वयं होगा । परमात्मा का नाम है सच्चिदानह । क्यो ? इस- लिये कि वह सत् है, चित है योर आनंदम्वरूप है। प्रातएव अानंद मात्र ईश्वर का स्वरूप है, परंतु इस मच्चे भानद के अधिकारी कितन है ? प्रत्येक प्राणी में, हरे-भरे वृक्षो मे, विकसित सुमनों में, रस भरे नाना फलों में प्रयोजन यह है कि जहाँ शिव है, सत्य है. सौदर्य है, वहा ईश्वर को ग्रानंदमयी नत्ता मौजूद है। परंतु उसका सचा उपभोग य स न 7 ने सी or १ mayo
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