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रसकलस ३३० - बिभा देत भानु सुधा स्रवत सुधा - कर है बरसत बारि - घर वर बारि - धार है। सरस बनावत रसा को है बिपुल - रस मंद मंद बहति मनोरम - बयार है। 'हरिऔध' वगर बगर मैं बगरि भूरि करति बिनोदित बसंत की बहार है। छहरि छहरि जात तारन - कतार हूँ मैं कृपा - पारावार की कृपालुता - अपार है॥८॥ दोहा-- तृन - तरु - हित बसतो न जो प्रभु - दयालुता मॉहि। न पसीजतो तजि पाहनता कॉहिं॥६॥ जो न दया-निधिता लहे सरसत दया-निधान । कैसे जीवन को करत जीवन जीवन - दान ॥१०॥ सुख - मय नहि होतो दिवस रस-मय होति न राति । जो न दया - मय की दया दया - मयी दिखराति ॥ ११ ॥ जो न दया - निधि की दया घेरति बन घन - घोर । कौन दूबरी दूब पै बरसत बारि - अथोर ।।१२।। व्रज - ललना कैसे होति ललाम । दया - बारि ते सींचतो जो न बारि - घर - स्याम ।। १३ ।। पाहन तो लोनी - लता