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रसकलस ३१८ 'हरिऔध' जो न करतूत होति मानव मैं बायु बहु - विभुता - बितान कैसे तनती। कैसे रमा राजति बिराजित विभूनि माँ हि रजमयो महि क्यों रजत - वती बनती ||४|| कैसे बास बनत असन को बिधान होत बिबिध-सुपास के बसन कैसे सिलते। दीपक क्यों दिपत दिखात तम-पुंज मॉहि निकसति कैसे सुधा सागर - सलिल ते । 'हरिऔध' जो न काम धुन होति कामुक मैं राख मॉहि कनक-कनूके कैसे मिलते । कैसे मरु-भूमि फल-मूल-अनुकूल होति धूल मैं क्यो परम अनूठे फूल खिलते ॥१॥ साधक की साध सारी साधना निकेतन है सिद्धि बिना 'इति' है न साहसी के 'अथ' मैं। संगिनी सफलता सफल करतूत की है विजय विराजति है कर्म-समरथ मैं। 'हरिऔध' सारी बाधा बाधति अबाध गति मू मैं विचरत बीर वैठि 'भूति-रथ' मैं । पार करि लेव है अपार-पारावार हूँ को मानत न हार है पहार परे पथ मैं ॥६।। काम-धुन-वारो कौन काम है न माधि लेत वाको सारो काम किये साधना सरत है। घरा मैं धंसत पैठि जात है पतार हूँ मैं विहरत नम मैं दिसा मैं पसरत है।