रस निरूपण धर्म धुर - धारी के सुधारे लोक सुधरत धर्म के उधारे सारी धरा उधरति है ॥ १५ ।। कूर होत कंपित मथित मगरूर होत पामरता दूर होति परम - नकारे की। धरकति छाती है अधम - अधिकारिन की दहलति दानवता दानवी - दुलारे की। 'हरिऔध' धरती अनीति-भरी धसकति सुनि कै धुकार धर्म - ध्वनित नगारे की। हॉक सुने बड़े बड़े हॉक-वारे हहरत मानत न कौन धाक धर्म-धाकवारे की ॥१६॥ सुरसरि - सलिल बनावत सुरा को नॉहिं सुर बनि बनि ना असुरता पसारे देत । बिधि वॉधि वॉधि नॉहि बाँधत अविधि वॉध बंदित ह बंदनीय-बानो ना बिगारे देत । 'हरिऔध' पूत-नीति-पथ को पथिक प्यारो वातन ते तारे ना गगन के उतारे देत । वारिद है बहुधा वरसि ना अंगारे जात सुधा-मिस वसुधा पै विस ना बगारे देत ।। १७ ।। दोहा- अमल-आरसी-सम अहै विपुल - बिमल - मन तौन । पूत - भाव - प्रतिबिंव ते प्रतिबिवित है जौन ॥ १८ ॥ द्रवत पसीजत जो रहत लहि परितापन कॉहि । वाको उर नवनीत है या अवनीतल मॉहि ।।१६।।
पृष्ठ:रसकलस.djvu/५६४
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।