११३ रस निरूपण छाये रहे उर मैं अवनि के अछूते भाव वनत अपूत ना अछूत - जन छूये ते ॥६॥ छीन को विलोकि छीन, धन छीन लेत नाहिं बनि कै सचेत न हरत चित - चेत है। औरन को दुख देखि परम दुखित होत हरो भरो करत रहत हित - खेत है। 'हरिऔध' जीवन दै जीवन - विहीनन को पूजनीय - जन जगतो मैं जस लेत है। रिस कै मसकि मीसि देत ना मसक हूँ को दॉत पीसि पीसि काहू को न पीसि देत है ॥१॥ हरत रहत है अहेतुक बिकारन को काहू पै कबौं न कोह करत कहर है। मद - मान - मत्तता निवारत है वाको मद प्रेम - पूत काम के फरेरे की फहर है। 'हरिऔध' मोह ते न मोहत महान जन वाको मोह - रवि पाप - ताप - तम-हर है। लोक - हित - लाभन पै ललकि लुभानो रहै होति लहू - लोहित न लोभ की लहर है ॥११॥ ऑखि फारि देखे ऑखि काहू को न फोरि देत आह भरे भुस खाल मोहिं ना भरत है। जीह के हिलाये जीह काहू की न बँचि लेत मुंह खोले कंठ पै कुठार ना र ना धरत है। 'हरिऔध' धीर-बीर बनत अधीर नॉहि धाक हित जेवरी न धूरि मैं वरत है।
पृष्ठ:रसकलस.djvu/५६२
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।