उसकलस ३०८ वा कवि मैं ही मिलति है कवि की सहज-उमंग। जाकी कविता रंग में विलसति भंग - तरंग ॥४॥ धूरि माँहि सुधबुध मिळे प्रतिभा होय अपग । सुधा मयी कविता करत कवि - जन छाने भग ।।५।। कवि - पुंगव कलि - काल मैं कूर हुँ को करि लेति । कोन जड़ी - बूटो नहीं बूटी जन को देति ।। ६ ।। देवी होति चुरेल है देव - दूत यम - दूत । भग - भवानी सों मिले नाना - भाव - भभूत ।। ७ ।। व्यंग वाण दोहा- जन को लूटत रहहिं ले दुगुनो - तिगुनो - व्याज । अहैं महाजन करत है महाजनी के काज ॥१॥ सोना ताँबा को करहि ताँबा सोना काँहि । साहु कहावहि पै सदा मूसि मूसि धन खाँ हिँ ।। २ ।। साहु साहु कहि होत है सब दिन साहु - बखान कतर - व्योत करि चोर हूँ के हैं कतरत कान ।। ३ ।। चाहत सरग बिमान हैं दै दमरी को दान । बनियन की छूटत नहि बनियापन की वान ॥ ४ ॥ कौडी खात हराम की लेत राम को नाम । कौन दूसरो पाइहै स्वर्ग लोक - अभिराम ॥५॥
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