३०७ रस निरूपण सच्चे साधु दोहा- तो गुरुता जो साधुन को भेस धरि करत असाधुन काम । ताको जो मिलिहूँ न तो काको मिलि है राम ॥ १॥ जो योगी संयोग लहि तजि है योग प्रसंग । दिखराइहै कैसे गेरुओ रंग ॥२॥ वे कैसे नहि भूलिहैं ताड़ बिलोकि अपान । जिनकी ताड़ी लगति है करि ताड़ी। को पान ।। ३ ।। पावन जो करतो नहीं वाको संत - सुजान । सुरा - मान होतो न तो सुरसरि-सलिल - समान ॥ ४॥ कैसे काहू संत को तो सिर जातो घूम । धूम - पान की नहिं मचति जो धरती मैं धूम ॥ ५॥ जो नव - जीवन - दायिनी गॉजा-चिलम न होति । कैसे साधु - जमात मैं जगति ज्ञान की जोति ॥ ६॥ जो न भोग को भूलतो योगी पी पी भंग । कैसे होतो भाव - मय भव - भयावनो - रंग ॥ ७ ॥ भंग तरंग दोहा- मतवाली कसे नहीं वाकी कला लखाय। जा कवि - मुंह-लाली रहति मद को लाली पाय ॥१॥ तो क्यों जय लहि है नहीं कहि जय जय कवि कोय । जो कविता पै विजयिनी विजया-देवी होय ॥२॥ छन हूँ छूटत है नहीं कूड़ी सोंटा संग। कविता सो गाढ़ी छनति गाढ़ी छाने भंग ॥ ३॥
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