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३०५ रस निरूपण - 'हरिऔध' कैसे दास बनते बिलासिता के कैसे धन धनिक - बसुंधरा को हरते । चित को विदेसी भाव कैसे तो बिदित होत जो न हम देसी है बिदेसी पट धरते ॥ ३ ॥ -सवैया- तो कहा सीदिन पै चढ़िक कियो चाव के साथ जो ऊँचे चढ़े ना । तो कहा दूर भई मन - मूढ़ता मानवता ते गये जो मढ़े ना। तो कहा कोऊ कियो गढिकै 'हरिऔध' गये यदि ठीक गढ़े ना । तो कहा आगे बढ़े जो बढ़े नहीं तो कहा पूत - पढ़े जो कढ़े ना ||४|| सीस पैमॉग बनी अवलोकिकै पौरुख पानिप खोइ परायो। वाल बने अरु मूंछ मुंडी लखि बीर को वानो महा विलखायो। साहस कैसे विचारो कर नर मैं न रह्यो नर को सरमायो । जाति सपूतन सूरपनो सव आँखिन मैं सुरमा है समायो ॥५॥ निराले लाल दोहा-- वे जनमे है आप ही अथवा मिले भभूत । कैसे मानें बाप को हैं न हैं न बाप के पूत ॥१॥ क्यो न भला चॉटे सहैं हैं माई के लाल । कैसे मुँह • लाली रहै बिना भये मुंह लाल ॥२॥ नामी नेता दोहा- रही नीति को सुधि नहीं सूली नीयत बात । कैसे करें अनीति नहिं नेतापन है जात ॥१॥