रसकलस ३०४ पास के प्रपंचिन को पाइहै पिसाई कैसे हिंदुन को पीसि कै पिसान जो न करिहैं ॥३॥ वचन-वाण कवित्त- वे हैं मूढ़ जो न रूप - चंद छबि देखि मोहैं नरक - अधेरी काको कहाँ पै लखाति है। जहाँ बॉकी परम - मधुर - मनकार होति काको तहाँ कथा पाप - पुन्न की सुनाति है। 'हरिऔध' लोभ की लहर लहराति जहाँ तहाँ जाति - पॉति, पॉति बाहर जनाति है। पेटवारे कैसे तब पेट की न मानें कही बेंचि बेंचि बेटी जब पेटी परि जाति है ||१|| चावन की चारुता में चारुता रहति नाहि भावन ते भावुकता करति किनारो है। बिबिध-बिलास की बिलासिता बिलीन होति रस-हीन बनत सकल-रस प्यारो है। 'हरिऔध' बिना धन रूप है बिरूप होत सुंदर सनेह हूँ ना लहत सहारो है। कैसे भरो पूरो छैल चाहहिं छबीली नाँहि कहूँ नाहिँ पूछो जात छूछो हाथवारो है ॥२॥ मुँह-कौर छोनि छोनि भूखे नर-नारिन को कैसे भरे पेटन को बारवार भरते । कैसे देस-प्रेमिन के नैनन के सूल होते से नि-शि- - नित ने उतरते ।
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