३०२ रसकलस बाप को न मानें सनमानें जननी को नॉहिं मेम कुल - बाला को वखाने उमहत हैं। निज वेस तजि पर - बेस पै बिकाने रहैं बोली हूँ बिरानी बोलि बोलि निबहत हैं । 'हरिऔध' कौन सी सपूती दिखरैहैं और साहब हमारे साहिबी ही मैं रहत हैं। पोटी दूहि दूहि कै पुनीत-परिपाटिन की चोटी काटि काटि बात चोटी की कहत हैं ॥ २॥ सवैया- सूट की चाट के चेरे रहे कबहूँ उतरी नहीं बूट की बूटी । सपति बानक-बंदिनी सी रही हैट के हाथ गई पति लूटी। ए 'हरिऔध' बॅधी मरजाद हूँ कोट के बंधन में परि टूटी। कालर काल भई कुल-मान की नाक कटी नकटाई न छूटी ॥३॥ कच्चा चिठा सवैया- काम ते क्यों न करें मनमानते जे मन के गये दास गिने हैं। कैसे नहीं तव ताने सबै जब बानें बुरी रहती दहिने हैं। ए 'हरिऔध' है मूंछ बनी अथवा मुख के छबि-वारे छिने हैं । या विगरैल विलासिनि हाथ सों वालम मूंछ के बाल विने हैं ।। १ ।। चाहत के रसचाखन चाहहिं भूत के पूत चुरैल के चेले । वानर है पहचानन चाहत पारस से मनि को मुख मेले । का 'हरिऔध' कहै गति काल की केले समान कहॉहि करेले । छल छिछोरे, छठूदर हैं वने, बैल कहावत हैं अलवेले ॥२॥
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