२७ कलेजा थाम लेता है । जब यह संसार मनुष्य मात्र का है, वह भी एक देशी नहीं, सर्वदेशी तो यह स्वीकार करना पड़ेगा कि काव्य-श्रवण अथवा नाटक-दर्शन के समय भी वह जैसा का तैसा रहेगा, उसमे यदि कारण विशेप से किसी काल में कुछ परिवर्तन होगा, तो नाम मात्र का । अपवाद की बात और है, वह कहॉ नहीं होता? जितन साहित्यिक ग्रंथकार और नाटककार होते हैं, सबका उद्देश्य सदादर्श-प्रचार होता है । प्राय अधिकांश ग्रथ इस उद्देश्य से लिखे जाते है कि उनके द्वारा जाति, देश और समाज का उत्थान हो औन उनमे ऐसे भावो का प्रचार ही जिससे उनके सुख-शांति की वृद्धि हो । लक्ष्य सबका यही होता है, लिग्रने की प्रणाली में भिन्नता हो सकती है। इस सूत्र से नाटक.आदि मे भले-बुरे सभी प्रकार के पात्र होते हैं । भले को भलाई और बुरे को चुराई दिखलाकर एक का उत्कर्ष और दूसरे का पतन दिखलाया जाता है । इसलिये कि जिसमे दर्शको के हृदयों मे भलाई करने और बुराई न करने की रुचि उत्पन्न हो । अपने उद्देश्य की सिद्धि में जिस ग्रंथकार अथवा नाटककार की लेखनी जितनी ही विलक्षण होती है, जितनी ही उसमें मार्मिकता होती है, जितनी ही मुंदरता से वह सूक्ष्म मानसिक भावो का चित्रण कर सकती है, उसकी रचना उतनी ही अपूर्व मनोहारिणी और प्रभावजनक होती है । इसी प्रकार इन भावो का अभिनेता अपने कार्य मे जितना ही दत्त, पटु प्रोर भावुक होता है, जितनी हो सदयता में भावो का व्यंजन कर मकता है. उसका अभिनय उतना ही सफल होता है, और उतना ही वह दर्शक-जन के हृदय को आकर्पित कर उसे विमुग्ध और आनंदित कर सकता है। मान लीजिये. रंगालय में जनता समवेत है, रामलीला हो रही है. वनवास प्रकरण है, और चारो ओर करण-रस प्रवाहित है । सामने न तो महाराज दशरथ है. न कौशल्या देवी. न कैकेयी. न मयरा. न .
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