२८७ रस निरूपण 'हरिऔध' किधौं ताल मॉहिँ हैं कमल फूले किधौं तम - तोम माँहि वरत मसाल हैं। तारक कै निसि-कंठ - माल के मुकुत - मंजु खेलत कै दिवि मै दुलारे देव - वाल हैं ॥७॥ हीरक लुभात हेरि सेतता सितारन की बारति ललाई लाल - तारन पै गुंजता । तारक - अवलि अवलोकि मोहि मोहि जाति नंदन - विपिन-कुसुमों की कल - कुंजता । 'हरिऔध' मंजुता कथन मैं कला - कर की मानव चकित होत हेरि मति - लुंजता । छहरि छहरि छके - नैनन को छोरे लेति तारों-भरी राति की अछूती - छवि-पुंजता ।। कतहूँ प्रकृति की अछूती - छटा छहरति कहूँ देव - बाला मंजु-मंडली हसति है। कतहूँ दिखाति है कतार तारकावलि की कहूँ जगी-जोति सुधा - धारा मैं धंसति है । 'हरिऔध' ताकी अलौकिकता बतावै कौन जामैं सारी-कांति कांति-कांत की वसति है। बहु - रवि-ससि ते ललित ओक ओक अहै नभ मैं ललामता त्रिलोक की लसति है | विचित्र चित्र कवित्त- दिवि है अदिवि उत देव हूँ अदेव अहैं वाकी न्यारी - जोति अहै जगत जहाँ नहीं।
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