२८५ रस निरूपण 'हरिऔध' बिभु-विभुता के हैं अनंत ओक लोक - अनुरंजन के सहज सहारे हैं। तेज-तोय-निधि के बवूले - चमकीले चारु व्योम-तरु - तोम के फबीले - फूल तारे हैं ॥१॥ प्रकृति - असीमता - अनंतता के अंकुर हैं आकर हैं अमित प्रभाकर के थल के। बिपुल - अलौकिकता - ललित - निकेतन है केतन हैं लौकिक ललामता महल के। 'हरिऔध' विभु की बिभूति ते विभूति-मान वैभव हैं मूल - भूत साधन सकल के । दिवि के दुलारे लोक - प्यारे तेज पुंज-वारे सुथरे संवारे सारे तारे नभतल के ॥२॥ कोटि कोटि कोस को है अंतर सितारन मैं लाख लाख कोस मॉहि काया निवसी अहै। अवलोके गये नाहिं अजहू कई करोर मति अजौं कोटिन की थिति में फंसी अहै। 'हरिऔध' गिने नाना - तारन - कतारन के अरव खरब की विवृति बिनसी अहै। तारे हैं अनंत या अनंत नभ-मंडल मैं एक एक तारे मैं अनंतता वसी अहै ।। ३ ।। - कोटि-कोटि-तारे भिन्न भिन्न रंग - रूप - वारे विपुल वगारे जोति वगरे अरे अहैं। कोटि कोटि छन छन जित बनत जात जगत जवाहिर से कोटिन जरे अहैं।
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