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रसकलस २५४ बैहर क्यो डोलति बहन कै मरद भार मलय - समीर मंद मंद कैसे बहतो ॥ ६॥ फूल खिले देखे कै बिलोके हरे-भरे - तरु भूलि निज - भाव ललचाई ललक थी । जा थल दिखातो लोक-लोचन छबीलो लाल और छबि देख वॉ उमंग - छलके छकी । 'हरिऔध' उत भव - हित मैं लुकत हरि इत सुख-मुख जोहि जोग - जुगतें जकीं। कित है लसे न बिलसे न दृग सौहैं कबौं ऑखि मैं बसे हूँ ना विलोकि अखिया सकी ।। ७ ।। बसि घर बार मैं बिसारे घर बारिन को घरी घरी बचि घेर घारन के घेरे ते । तम मैं उजारो किये उर को उजारो लहि देखे जग - जीवन के जीवन को नेरे ते। 'हरिऔध' कहै भेद खुलत अभेद को है सारे - फेर - फारन ते मानस को फेरे ते । कानन के कानन की वातन को कान करि आँखिन की ऑखिन को ऑखि मॉहि हेरे ते ॥८ नैश गगन कवित्त आलोकिक उजरे सुनहरे सुहावने हैं कारे पीरे नीले हरे भूरे रतनारे हैं। नयन - विमोहन विचित्रता - निकेतन हैं विधि - कमनीय - कंज • कर के सँवारे हैं।