२८३ रस निरूपण दमक दिखाति काकी दमकति - दामिनी मैं चाँदनी में चंद मैं चमक काकी मिलती ।। ३ ।। एक तिनके ते है अनंतता विदित होति पथ - रज • कन हूँ कहत 'नेति' हारे हैं। सत्ता की महत्ता पत्ता पत्ता है वताये देति काल की इयत्ता गुने लोमस, विचारे हैं। 'हरिऔध' अनुभूति - रहित बिभूति अहै विभव-पयोधि-बारि-विंदु लोक सारे हैं। भव - तन मैं हैं भूरि भूरि रवि सोम भरे विभु रोम रोम मैं करोरो ब्योम-तारे हैं ।।४।। देहिन को सुखित सनेहिन - समान करि पंखे अति - मंजुल - पवन के हिलत हैं। चंद के मनोरम - करनते अवनि काज चॉदनी के सुंदर बिछावने सिलत हैं। “हरिऔध' कौन कहै काके अनुकूल भये सीपन मैं मोती मनभावने मिलत हैं। कीच मॉहिं अमल - कमल विकसित होत धूल मॉर्हि सुमन - सुहावने खिलत हैं ॥शा काल - अनुकूल कैसे कारज - सकल होत पिक कृके कैसे सारो ककुभ उमहतो । बिकसित कैसे होति कला कुसुमायुध की कैसे लहराति लता पादप उलहतो। 'हरिऔध' हेतु-भूत सत्ता जो न कोऊ होति कुसुम - समूह कुसुमाकर क्यो लहतो ।
पृष्ठ:रसकलस.djvu/५३०
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।