२६ हर्ष के उत्पन्न होने का नियम लोक में ही होता है, ( काव्य और नाटकों मे) विभावादिको से सुख ही मिलता है।' फिर स्वय तर्क करते हैं- 'कथ तहि हरिश्चन्द्रादिचरितस्य काव्यनाट्ययोरपि दर्शनश्रवणभ्यामश्रुपा- तादयो जायन्ते । यदि सुख ही होता है तो हरिश्चद्र आदि के करुणरसमय चरित को काव्य एव नाटको मे देखने-सुनने से अश्रुपातादि क्यो होते हैं ? उत्तर देते है- 'अश्रुपातादयस्तद्वद्भुतत्वाच्चेतसो मत' । चित्त के द्रवित होने के कारण से, प्रयोजन यह कि चित्त दुख मे ही द्रवित नहीं होता आनद मे भी द्रवित होता है और उस समय भी अश्रुपातादि होते हैं। साहित्य-दर्पणकार ने जो कुछ कहा है, सूत्र रूप से कहा है । मैं यथामति उसकी व्याख्या करके उसको स्पष्ट करना चाहता हूँ। मानव- समाज के कुछ सस्कार सार्वभौम हैं, किसी देश अथवा किसी जाति का प्राणो क्यो न हो, गुणो का श्रादर और दुर्गुणों का अनादर अवश्य करेगा। मानस के जो उदात्त और महान् भाव हैं, उसकी पूजा सब जगह सभी करता है, इसी प्रकार उसके जो कुत्सित, घृणित एवं निन्द- नीय विचार हैं, उनको हेय, अतत् और तिरस्कार योग्य कौन नहीं मानता ? सतो स्त्री जैसे ससार मे वन्द्य है, असती स्त्री वैसे ही अक्षम्य । सदाचारी पुरुप सब स्थानो मे देवता समझा जाता है और दुराचारी पुरुप वसुधरा भर मे दानव । जहाँ किसी शिष्ट, उदारचेता, धर्मप्राण, पुरुप को देखकर हृदय प्रफुल्ल और कृतकृत्य होता है, वहाँ दुष्ट उत्पी- ड़क एव धर्मन्युत जन को देख क्रुद्ध और सतप्त बन जाता है । प्रायः देखा गया है कि नरपिशाचो का नाश, दमन और उत्पीडन देखकर समाज हर्ष-विह्वल हो जाता है और वही महात्माओ की कदर्थना देखकर
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