२७७ रस निरूपण लोचन-विहीनता कवित्त- जाति - दयनीय - दसा देखि दुख होत नॉहिं लोच - भरी - बात पै रहत ललचाये है। हित को अहित औ अहित को कहहिं हित पेच - पाच - वारे पेच पाच पै लुभाये हैं। 'हरिऔध' भूल ही पै भूल हैं करत जात अजहूँ लिलार - लेख को न भूल पाये हैं। कोरे बनि करहिं निहोरे करजोरे रहैं भोरे-भोरे-भाव भोरे - हिंदुन को भाये है॥१॥ जगत मैं जाकी जगमगत सु - जोत रही वाकी जाति - वारे नॉहि जागत जगाये हैं। तेज - हीन भये जात तात तेज - वारन के जीवन - विहीन जग - जीवन के जाये हैं। 'हरिऔध' आज तिल ताल तिनहूँ को भयो कबहूँ तिलोक के जे तिलक कहाये हैं। भरत के पूत हूँ उभारे उभरत नाँहि भारतीय भोरे - भोरे भाव पै लुभाये है ॥२॥ तंत कै कै हिदुन को अंत जो न दे करि कैसे तो दिगंत मोहिँ कीरति वितरिहैं। कैसे भारतीयता - बिभव को विकास कैहैं भूति जो न भरत - कुमारन की हरिहैं। 'हरिऔध' देस प्रेमपाग मैं पगेंगे किमि जो न जाति-लालसा लहू सों हाथ भरिहैं।
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